तुम, मैं और सफर


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एक आवाज़
गूंजती है इन वादियों में
मैं चलती जाती हूँ
पीछे-पीछे
पकड़कर सिरा
प्रेम से भरी उस पुकार का
और अचानक ही
थम जाते है कदम मेरे
ठहर जाती है निगाहें
जब देखती हूँ मैं
थमे हो तुम वहाँ
पकड़कर दूसरा सिरा
हृदय से निकली
उस प्रेम-पुकार का
लेते हो थाम तुम
अपनी हथेलियों में
मेरी हथेलियों को
और चल पड़ते है हम
मुस्कुराते हुए
एक नए सफर पर
बिना मंजिलों की परवाह किये
साथ चलते हुए तुम्हारे
करती हूँ बस यही दुआ
मंजिलें करती रहे इंतज़ार
मगर ना हो खत्म
कभी भी ये सफर
हो चाहे शाम
या की आये सहर
रुके ना कभी
संग बढ़ते हुए ये कदम
है बस इतनी ही चाहत
मेरे प्रिय मेरे हमदम

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